वीर लोरिक का जन्म उत्तरप्रदेश के बलिया जनपद (वर्तमान) के गऊरा गाँव में एक ग अहीर’ घराने में हुआ था, उनके काल निर्धारण को लेकर बहुत विवाद है – कोई विद्वान् उन्हें ईसा के पूर्व का बताते हैं तो कुछ उन्हें मध्ययुगीन मानते हैं। कुछ इतिहासकारों ने वीर लोरिक को राजा भोज के वंशज भी माना हैं।
जनश्रुतियों के नायक लोरिक की कथा से सोनभद्र के ही एक अगोरी (अघोरी?) किले का गहरा सम्बन्ध है, यह किला अपने भग्न रूप में आज भी मौजूद तो है मगर है बहुत प्राचीन और इसके प्रामाणिक इतिहास के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है।
यह किला ईसा पूर्व का है किन्तु दसवीं सदि के आस पास इसका पुनर्निर्माण खरवार, अगोरी दुर्ग के ही नृशंस अत्याचारी राजा मोलागत से लोरिक का घोर युद्ध
हुआ था ।
बजरंगबली हनुमान के अंश कहे जाने वाले वीर लोरिक योगमाया माँ भवानी के बहुत बड़े भक्त थे और उन्हें स्वयं माँ का आशिर्वाद प्राप्त था, कहीं कहीं ऐसी भी जनश्रुति है कि लोरिक को तांत्रिक शक्तियाँ भी सिद्ध थीं और लोरिक ने अघोरी किले पर अपना वर्चस्व कायम किया, लोरिक ने उस समय के अत्यंत क्रूर राजा मोलागत को पराजित किया था और इस युद्ध का हेतु बनी थी – लोरिक और मंजरी की प्रेम कथा।
अगोरी के निकट ही महर सिंह नाम के एक यदुवंशी अहीर जागीरदार करते थे, महर सिंह की ही आख़िरी सातवीं संतान थी कुमारी मंजरी जो अत्यंत ही सुन्दर थी। जिस पर मोलागत की बुरी नजर पडी थी और वह उससे विवाह करने की लालसा पाल रहा था, इसी दौरान राजकुमारी मंजरी के पिता महर सिंह को लोरिक के बारे में जानकारी हुई और मंजरी की शादी लोरिक से तय कर दी गयी।
वीर अहीर लोरिक बलिया जनपद के गौरा गाँव के निवासी थे, जो बहुत ही सुंदर, बहादुर और बलशाली थ।
रौबदार मूंछें, 8 फीट ऊंचे भीमकाय शरीर के वीर लोरिक की तलवार का वज़न 85 मण था, उनके बड़े भाई का नाम था सवरू ,वीर लोरिक माँ भवानी के बहुत बड़े भक्त थे और कहा जाता है कि उनकी भीमकाय तलवार में स्वयं माँ भवानी वास करतीं थी।
भीमकाय वीर लोरिक जब अश्व पर सवार हो अपनी तलवार लेकर रणभूमि में उतरते तो दुश्मनों की सेना भय के मारे थर्रा उठती, लोरिक को पता था कि बिना मोलागत को पराजित किये वह मंजरी को विदा नहीं करा पायेंगे, इसिलए युद्ध की तैयारी के साथ बलिया से बारात सोनभद्र के मौजूदा सोन (शोण) नदी तट तक आ गयी।
राजा मोलागत ने तमाम उपाय किये कि बारात सोन को न पार कर सके, किन्तु बारात नदी पार कर अगोरी किले तक जा पहुँची, भीषण युद्ध और रक्तपात हुआ – इतना खून बहा कि अगोरी से निलकने वाले नाले का नाम ही रुधिरा नाला पड़ गया और आज भी इसी नाम से जाना जाता है, पास ही नर मुंडों का ढेर लग गया – आज भी नरगडवा नामक पहाड़ इस जनश्रुति को जीवंत बनाता खडा है।
कहीं शोण (कालांतर का नामकरण सोन ) का नामकरण भी तो उसके इस युद्ध से रक्तिम हो जाने से तो नहीं हुआ? मोलागत और उसकी सारी सेना और उसका अपार बलशाली इनराव्त हाथी भी मारा गया -इनरावत हाथी का वध वीर लोरिक अपने मुक्के के मात्र एक प्रहार से करते है और सोंन नदी में उसके शव को फेंक देते है।
आज भी हाथी का एक प्रतीक प्रस्तर किले के सामने सोंन नदी में दिखता है।
वीर लोरिक के साथ मोलागत और उसके कई मित्र राजाओं से हुए युद्ध के प्रतीक चिह्न किले के आस पास मौजूद है।
मंजरी की विदाई के बाद डोली मारकुंडी पहाडी पर पहुँचने पर नवविवाहिता मंजरी वीर लोरिक के अपार बल को एक बार और देखने के लिए चुनौती देती है और कहती है कि कि कुछ ऐसा करो जिससे यहां के लोग वीर लोरिक और मंजरी की जोड़ी को याद रखें।
लोरिक कहते है कि – ” बताओ ऐसा क्या करूं जो हमारे प्यार की अमर निशानी बनी रहे, प्यार करने वाला कोई भी जोड़ा यहां से मायूस भी न लौटे”।
मंजरी लोरिक को एक विशाल चट्टान दिखाते हुए कहती है कि वे अपने प्रिय शमशीर से एक विशाल शिलाखंड को एक ही वार में दो भागो में विभक्त कर दें।
लोरिक ने ऐसा ही किया और अपने अपार बाहुबल से अपनी 85 मण की विशाल शमशीर ले उस विशाल चट्टान को एक ही बार में काट दिया।
यह खंडित शिला आज भी यहाँ मौजूद है अखंड प्रेम की जीवंत कथा लिए। मंजरी ने खंडित शिला को अपने मांग का सिन्दूर भी लगाया।
यहाँ गोवर्द्धन पूजा और अन्य अवसरों पर मेला लगता है जिसमें दूर दूर से साधु-संत, ब्राह्मण आदि यहाँ खौलते हुए दूध से स्नान कर वीर लोरिक को नमन् करते हैं।
वीर लोरिक जयंती पर कोटि-कोटि नमन।